समरथ को तो..
बहुत दिनों से मन में दुविधा चल रही है कि इससे पहले की कंपनी की असफलताऒ का ठीकरा किसी के सर पर फोठा जाये, मैं ही अपने लाभ के पद से त्यागपत्र दे दूं । इससे दो फायदे होंगे बेचारे वरिष्ठ लोगों (मेनेजरो) को मुर्गा तलाश नहीं करना पडेगा और मेरा भी काम (नौकरी) छोडने का हो जायेगा..
भगवान ने चाहा तो कुछ बेहतर माथा-पच्ची करूगा, तभी आत्मा की आवाज़ आई, जैसे कि ज्ञानियो को आती है, कि मूर्ख ऐसा मत करियो!!
मैने कहा क्यों नहीं? सारे लोग ऐसे ही बलिदान देते है और अमर हो जाते है, मै क्यों नहीं कर सकता?
आत्मा ने कहा - याद कर तुलसीदासजी को.."समरथ को नही दोष गोसाईं!!"
मुझे समझ आया.. .."समरथ को तो बलिदान है भाई!!"
6 टिप्पणियां:
Good one..btw pad labh ke hi chhodne hain fir hum aur aap (gerlabh) ke pado vale kyon chinta kare?
ऎसा कभी ना करें, जिसके सर पे फ़ूटना हो,फूटे..जब तक किस्मत साथ दे, बचते रहो, कभी ना कभी तो धराना ही है...बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी...शुभकामनाऎ..
समीर लाल
अरे नहीं, ख़बर को दोबारा ध्यान से पढिए। यह तो आपके हक़ और फ़ायदे की बात है। जब आपको नौकरी से निकाला जाने वाला हो, तो इस्तीफ़ा देकर कहिएगा कि मैंने बहुत बड़ा त्याग किया है, कम्पनी के लिए बलिदान किया है। सोनिया जी ने भी तो इसी तरह फँसने के बाद त्याग-पत्र दिया है। :)
त्याग किस बात का करना, क्योंकि अगर कंपनी को मुर्गा हि चाहियए तो खुद क्यों मरना, कहने को तो ब्रड़ फ़्लू भी चल ही रहा है, जब तक उसकी चपेट में ना आओ तब तक जीते रहना भी क्या बुरा है !
हिन्दी चिट्ठा जगत में प्रवेश करने पर बधाइयाँ!
'रपट पड़े तो हर गंगे की' -- एकदम ठीक फिलॉसफी है. बरक्कत हो!
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